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इति॑ त्वा दे॒वा इ॒म आ॑हुरैळ॒ यथे॑मे॒तद्भव॑सि मृ॒त्युब॑न्धुः । प्र॒जा ते॑ दे॒वान्ह॒विषा॑ यजाति स्व॒र्ग उ॒ त्वमपि॑ मादयासे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iti tvā devā ima āhur aiḻa yathem etad bhavasi mṛtyubandhuḥ | prajā te devān haviṣā yajāti svarga u tvam api mādayāse ||

पद पाठ

इति॑ । त्वा॒ । दे॒वाः । इ॒मे । आ॒हुः॒ । ऐ॒ळ॒ । यथा॑ । ई॒म् । ए॒तत् । भव॑सि । मृ॒त्युऽब॑न्धुः । प्र॒ऽजा । ते॒ । दे॒वान् । ह॒विषा॑ । य॒जा॒ति॒ । स्वः॒ऽगे । ऊँ॒ इति॑ । त्वम् । अपि॑ । मा॒द॒या॒से॒ ॥ १०.९५.१८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:95» मन्त्र:18 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:18


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऐळ) हे वाणी में कुशल बहुत वक्ता पते ! (इमे देवाः) ये विद्वान् जन (त्वा) तुझे (इति) ऐसा (आहुः) कहते हैं (इम्-एतत्) यह कि (यथा) जैसे (मृत्युबन्धुः) मृत्यु जिसका बन्धु है-पीड़ा देनेवाला नहीं है, ऐसा तू (भवसि) हो जावेगा, मुझसे विरक्त होकर (ते) तेरा (प्रजा) सन्तति-पुत्र (हविषा) अन्नादि से (देवान्) विद्वानों का (यजाति) सत्कार करेगा-तेरी प्रसिद्धि करेगा (त्वम्-अपि) तू भी (स्वर्गे-उ) मोक्ष में स्थिर (मादयासि) हर्ष आनन्द को प्राप्त करेगा ॥१८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य गृहस्थ से विरक्त होकर विद्वानों के सत्कार का पात्र बन जाता है और मृत्यु भी उसका मित्र बन जाता है, जो अपने विकराल स्वरूप को छोड़ देता है, पीड़ा नहीं पहुँचाता है, मोक्ष में स्थिर आनन्द को भोगता है, उसकी सन्तान अच्छा कर्म करते हुए संसार में उसके यश को स्थिर रखती हैं, यह गृहस्थ आश्रम का परम फल है ॥१८॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऐळ) हे वाचि कुशलः “इळा वाङ्नाम” [निघं० १।११] पुरूरवः ! बहुवक्तः ! (इमे देवाः) एते विद्वांसः (त्वा-इति-आहुः) त्वामित्थं कथयन्ति (यथा-ईम्-एतत्) एतद् यत्-यथा हि (मृत्युबन्धुः-भवसि) मत्तो विरक्तः सन् मृत्युबन्धुर्यस्य तथाभूतस्त्वं न हि मृत्युस्त्वां पीडयिष्यति, तदा (ते प्रजा) तव पुत्रः (हविषा देवान् यजाति) अन्नादिना विदुषो यक्ष्यति सत्करिष्यति तव प्रसिद्धिं करिष्यति “लृडर्थे लेट्” (त्वम्-अपि स्वर्गे-उ मादयसि) त्वमपि मोक्षे खलु हर्षं प्राप्स्यसि ॥१८॥